वांछित मन्त्र चुनें

यदि॑न्द्र॒ प्रागपा॒गुद॒ङ्न्य॑ग्वा हू॒यसे॒ नृभि॑: । सिमा॑ पु॒रू नृषू॑तो अ॒स्यान॒वेऽसि॑ प्रशर्ध तु॒र्वशे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad indra prāg apāg udaṅ nyag vā hūyase nṛbhiḥ | simā purū nṛṣūto asy ānave si praśardha turvaśe ||

पद पाठ

यत् । इ॒न्द्र॒ । प्राक् । अपा॑क् । उद॑क् । न्य॑क् । वा॒ । हू॒यसे॑ । नृऽभिः॑ । सिम॑ । पु॒रु । नृऽसू॑तः । अ॒सि॒ । आन॑वे । अ॒सि॒ । प्र॒ऽश॒र्ध॒ । तु॒र्वशे॑ ॥ ८.४.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:4» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

किसका अनुकूल ईश्वर होता है, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्रवाच्य परमदेव ! (यद्) यद्यपि तू (प्राक्) पूर्व दिशा में (अपाक्) पश्चिम दिशा में (उदक्) उत्तर दिशा में (वा) और (न्यक्) नीचे अधस्थल में या दक्षिण दिशा में अर्थात् सर्वत्र (नृभिः) मनुष्यों से (हूयसे) निमन्त्रित और पूजित होता है। तथापि (सिम) हे सर्वश्रेष्ठ देव ! (आनवे) तेरे अनुकूल चलनेवाले उपासक के लिये (पुरु) बहुधा=वारंवार (नृषूतः+असि) विद्वान् मनुष्य द्वारा तू प्रेरित होता है और (प्रशर्ध) हे निखिलविघ्नविनाशक देव (तुर्वशे) शीघ्र वश होनेवाले जन के लिये भी तू (असि) प्रेरित होता है। अर्थात् अनुकूल और वशीभूत जनों के ऊपर तू सदा कृपा बनाए रख, ऐसी स्तुति सब ही ज्ञानी पुरुष करते हैं और उनके ही अनुकूल तू सदा रहता है अर्थात् जो तेरी आज्ञा के अनुकूल और वशीभूत हैं, वे ही तेरे प्रिय हो सकते हैं, अन्य नहीं ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मेधाविजनो ! इस प्रकार आप जानिये। यद्यपि सब जन सर्वत्र निज-२ मनोरथ की पूर्ति के लिये उस ईश की स्तुति और गान करते हैं और उससे माँगते हैं, तथापि वह सब पर प्रसन्न नहीं होता, क्योंकि वह भावग्राही है। जो उसकी आज्ञा में सदा रहता, पापों से निवृत्त होता, भूतों के ऊपर दया करता, वही अनुग्राह्य होता है ॥१॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अब कर्मयोगी को उपदेशार्थ बुलाकर उसका सत्कार करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यत्) यद्यपि (प्राक्) प्राची दिशा में रहनेवाले (अपाक्) पश्चिम दिशा में रहनेवाले (उदक्) उदीची दिशा में रहनेवाले (वा) अथवा (न्यक्) अधोदेश में रहनेवाले (नृभिः) मनुष्यों द्वारा (हूयसे) स्वकार्यार्थ आप बुलाये जाते हैं, इसलिये (सिम) हे श्रेष्ठ ! (पुरु, नृषूतः) बहुत बार मनुष्यों से प्रेरित (असि) होते हैं, तथापि (प्रशर्ध) शत्रुओं के पराभविता ! (आनवे, तुर्वशे) जो मनुष्यत्वविशिष्ट मनुष्य है, उसके पास (असि) विशेषरूपेण विद्यमान होते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - याज्ञिक लोगों की ओर से कथन है कि इन्द्र=हे परमैश्वर्य्यसम्पन्न कर्मयोगिन् ! आप चाहे प्राच्यादि किसी दिशा वा स्थान में क्यों न हों, हम लोग स्वकार्यार्थ आपको बुलाते हैं और आप हम लोगों से प्रेरित हुए हमारे कार्य्यार्थ आते हैं, इसलिये कृपा करके शीघ्र आवें और हमारे मनोरथ को पूर्ण करें ॥१॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

कस्यानुकूल ईश्वरोऽस्तीत्यनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! यद्=यद्यपि। त्वम्। प्राक्=प्राच्यां दिशि। अपाक्=प्रतीच्यां दिशि। उदक्=उदीच्यां दिशि। तथा। न्यक्वा=नीच्यामधस्ताद्दक्षिणस्यां दिशि वा सर्वत्रैवेत्यर्थः। नृभिः=नरैः। हूयसे=यद्यपि सर्वत्रैव त्वं पूज्यसे। तथापि। हे सिम=श्रेष्ठ ! सर्वबन्धक ईश ! “सिम इति वै श्रेष्ठमाचक्षत इति वाजसनेयकम्”। आनवे=अनुकूलं यथा तथा यश्चलति स आनवः। तस्मिन्ननुकूलगामिनि मनुष्ये। पुरु=बहुधा। नृषूतोऽसि=नृभिः सूतः प्रेरितो भवसि। षू प्रेरणे। कर्मणि निष्ठा। अपि च। हे प्रशर्ध=प्रकर्षेण शर्धयितरभिभवितरिन्द्र। तुर्वशे=तुरं शीघ्रम् वशे=वशीभूते जने। नृषूतोऽसि ॥१॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अथोपदेशार्थमाहूतस्य कर्मयोगिनः सत्क्रियोच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यत्) यद्यपि (प्राक्) प्राग्दिशि स्थितैः (अपाक्) प्रतीच्यां स्थितैः (उदक्) उदीच्यां स्थितैः (वा) अथवा (न्यक्) अधोदेशनिवासिभिः (नृभिः) जनैः (हूयसे) स्वकार्यार्थमाहूयसे, अतः (सिम) हे श्रेष्ठ ! (पुरु, नृषूतः) बहुभिर्नृभिः प्रेरितः (असि) भवसि तथापि (प्रशर्ध) हे अभिभवितः ! (आनवे, तुर्वशे) यो हि मनुष्यत्वविशिष्टो जिज्ञासुस्तत्समीपे (असि) विशेषेण विद्यसे ॥१॥